ये साधारण स्त्रियों की असाधारण उपलब्धियों का समय है। कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक को बुकर प्राइज मिलना इस बात की तस्दीक करता है। एक मुहावरा हुआ करता है ‘बोर्न विद सिल्वर स्पून’ । मगर बानू मुश्ताक जैसी लाखों-करोड़ों स्त्रियों की कहानी इस मुहावरे के बिल्कुल उलट है। एक ऐसा जीवन जहां कदम-कदम पर संघर्ष है। मगर हार न मानने का जज़्बा भी है। अगर आप भी अपनी पर्सनल या प्रोफेशनल लाइफ में हारा या थका हुआ महसूस कर रही हैं, तो आपको बानू मुश्ताक (Banu Mushtaq Booker prize) के बारे में और अधिक पढ़ना, जानना और समझना चाहिए।
कन्नड़ लेखिका, समाजसेविका और वकील 20 मई से अचानक चर्चा में आ गई हैं। वजह है उनकी कहानियों की किताब हार्ट लैम्प, जिसे इंटरनेशनल बुकर प्राइज से सम्मानित किया गया है। मूलतौर पर कन्नड़ भाषा में लिखी गई बानू मुश्ताक की कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद भारतीय अनुवाद दीपा भश्ती ने किया है। यह पहली बार है जब कहानियों की किसी किताब को बुकर प्राइज (Banu Mushtaq Booker prize) दिया गया है और उसका अनुवाद भी भारतीय अनुवादक द्वारा किया गया हो।
कर्नाटक के हसन में 1948 में जन्मी बानू मुश्ताक का प्रारंभिक जीवन भले ही साधारण रहा हो, मगर संघर्ष उनसे कभी अलग नहीं हुआ। 8 वर्ष की उम्र में जब स्थानीय स्कूल में उनका दाखिला करवाया गया तब उनके पिता ने यह शर्त रखी थी कि उन्हें छह महीने के भीतर ही कन्नड़ पढ़ना और लिखना सीखना होगा। जिसे उन्होंने कुछ दिनों में ही कर दिखाया था।
एक प्रतिभाशाली लड़की की मुश्किलें घर-परिवार से ही शुरु हो जाती हैं। मुश्ताक के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब उन्होंने पढ़ाई शुरू की, तो नाते-रिश्तेदारों ने यह कहकर उनके पिता को लांछित किया कि एक दिन उनकी बेटी खानदान की नाक कटवा देगी।
बानू मुश्ताक दक्षिण पश्चिम भारत में कर्नाटक (Banu Mushtaq Booker prize) के ऐसे क्षेत्र से आती हैं जहां धर्म, जाति और जेंडर की कई रुढ़ियां कदम-कदम पर उनकी राह रोकती रहीं। मगर वे पीछे नहीं हटीं। शिवमोगा के मुस्लिम समुदाय में जहां ज्यादातर लड़कियां अरेंज मैरिज ही करती हैं, वहां उन्होंने अपनी इच्छा से अपने लिए जीवनसाथी का चुनाव किया था।
तनाव सभी की जिंदगी में आते हैं और कभी-कभी मन इतना अधिक हार जाता है कि लोग हताशा में आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लेते हैं। बानू मुश्ताक की एक कहानी उनके जीवन के एक ऐसे ही पल को प्रतिबिंबित करती हैं। जिसमें नायिका अपनी मर्जी से चुने गए जीवनसाथी के व्यवहार और घर-गृहस्थी के तनाव से इतनी ज्यादा हताश हो जाती है कि वह केरोसिन छिड़ककर खुद को आग लगा लेना चाहती हैं।
मगर अंत में उसके बच्चे उसे रोक लेते हैं और उसे समझ आता है कि कोई है जिन्हें उसकी जरूरत है। उनकी कहानियों की प्रशंसा करते हुए बुकर की ज्यूरी ने कहा है, “बानू मुश्ताक की कहानियां चकित करती हैं। उनकी भाषा व्यंग्यात्मक और भावपूर्ण है। मगर कभी-कभी वह असहज कर देती हैं। उनमें चंचल बच्चे, साहसी दादियां, मसखरे मौलवी और गुंडे जैसे भाई, अक्सर बेबस पति, और सबसे बढ़कर वे मांएं, जो अपनी भावनाओं के साथ जीने की भारी क़ीमत चुकाती हैं।”
स्त्रियां सहज ही बानू मुश्ताक से खुद को रिलेट कर पाएंगी। वे दक्खिनी उर्दू, इंगलिश, कन्नड़ सहित कई भाषाओं की जानकार हैं।
शुरुआत में बानू मुश्ताक ने लंकेश पत्रिका में रिपोर्टर के तौर पर काम करना शुरू किया था। मगर घर की तरह ही यहां भी चुनौतियां कम नहीं थीं। जिसके कारण उन्हें इसे छोड़ना पड़ा। कुछ समय तक उन्होंने बैंगलूरू ऑल इंडिया रेडियो में उद्घोषक के तौर पर भी काम किया। मगर यह काफी नहीं था। घर चलाने के लिए उन्होंने वकालत पढ़ी और इसे अपना पेशा बनाया।
बानू मुश्ताक धार्मिक कट्टरवादियों को चुनौती देती रहीं हैं। वे महिलाओं के हक के लिए बराबर आवाज़ उठाती रही हैं। समानता के अधिकार की पैरवी करते हुए उन्होंने महिलाओं के मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने की इजाजत की वकालत की थी। जो कठमुल्लाओं को नागवार गुजरा और उन्होंने बानू मुश्ताक और उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार करते हुए उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया था।
हिजाब पहनकर स्कूल जाने के कर्नाटक की लड़कियों की मांग का भी बानू मुश्ताक के समर्थन किया था। जिसे कई जगह चुनौती दी गई। 77 वर्षीय बानू मुश्ताक के इंटरनेशनल बुकर प्राइज (Banu Mushtaq Booker prize) जीतने के बाद उन्होंने उन तमाम सवालों, तंजों और फतवों का जवाब दे दिया है, जो जीवन भर उनकी राह में रोड़ा बनते रहे।
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